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कोरोना -महामारी या कर्मो का फल



      2020
शायद दुनियां का एक भी कोना ऐसा नहीं होगा जहां उस महामारी ने अपना प्रकोप नहीं फैलाया ।

सच ही कहा है :-

ये जो हो रहा है ना सब अपने ही कर्मो का फल है,
अभी बाकी है आगे आगे देखो होता है क्या, 
मौत सुला देगी अच्छे अच्छो को ऐसा वक्त आयेगा,
लोग पूछेंगे एक दूजे से तु चेन से सोता है क्या।
ये भविष्य नहीं वर्तमान बता रहा हूँ तुमको, 
ये वहम था कल तक कोई घर में कांटे बोता है क्या।
एक रोटी तो क्या कोई पास खड़ा भी नहीं होने देगा,
लोग भूल जायेंगे अपना होता है क्या। 
मिठाई वहम है रोटीयां दिखेगी सपनो में,
तुम कहोगे रोटी का भी सपना होता है क्या। 
मगर पूछ मत लेना मुझसे बता नहीं पाउंगा,
इंसान अपनी इंसानियत भी खोता है क्या। 
                              दशरथ रांकावत "शक्ति"

 क्या प्रकृति अपने अंदर रहने वाले जीवो का विनाश कर सकती है क्या मां अपने बेटे का गला घोट सकती है क्या नदी अपना पानी खुद पी सकती है पेड़ अपना फल खुद खा सकता है नहीं हरगिज़ नहीं  तो इसका कारण क्या है सच पूछो तो इसका कारण केवल और केवल इंसान की खुद की लापरवाही खुदगर्जी है ।

मर्ज ए बीमारी आये न आये वहम ए खुमारी उतर जायेगी, 
सुधारना था इंसान को मकसद इसका सुधारेगी गुजर जायेगी।
                            दशरथ रांकावत "शक्ति" 

आज दुनिया में जिस स्तर तक इस महामारी ने अपना प्रकोप फैलाया है आने वाली 50 पीढ़ी इसे याद रखेगी कारण भले चीन को माना जाए या मांसभक्षण।

यकीनन मौत सर पर थी मगर बच गया, 
तब जाकर समझा कि दुआ क्या है। 
जमीं की छोडो़ जहन्नुम तक ना छोडेगी तुम्हें, 
किसी फकीर से जा पूछो बददुआ क्या है। 
खुदा के हाथ के प्यादे हो बाजी उसकी है, 
जिंदगी हार गये हो पूछते हो जूआ क्या है। 
मां कहती है बुरे कामो के नतीजे भी बुरे होते है,
भले लोगों को उठा रहा है  ए खुदा हुआ क्या है। 
 खुदगर्जी में किसी की जान भी ले लेगा, 
इंसान को आखिर ये हुआ क्या है।
सोचता था कि हर आग से पहले उठता जरूर है,
रंजिशो की आग में भला धुआँ क्या हैं।
लाशे चीख रही है मर गया मैं बचा लो खुद को, 
बहुत खुदा बने फिरते थे बीमार हो दवा क्या है। 
फलक में चुम्बक लिये बैठा है कोई यकीनन,
जमीं तो खैचती थी अपनी आसमान को हुआ क्या है।
                          दशरथ रांकावत "शक्ति"

 प्रकृति अपने अधिकारो का हनन नहीं होने देती है कश्मीर बाढ 2014, उत्तराखण्ड बाढ 2013 ,बिहार जल तबाही 2007, सुनामी 2004, गुजरात भूकम्प 2001, उड़ीसा तुफान 1999, बंगाल सूखा ये सभी प्रमाण है मानवीय सीमा के उलंघन का।




इसी पृष्ठभुमि को दर्शाती एक कविता प्रस्तुत है :-

हर सख्स टकटकी लगाये है सुरज की तरफ, 
हो न हो आज अंधेरे की आखिरी रात है। 
इंसान की ताकत बस करने की हद तक है,
नतीजा एक मुद्दत से अब भी खुदा के हाथ है।
ये जो दुनियां में फैला है मौत का दरिया अभी, 
समझ जाओ इंसान बस समझ की बात है। 
हमको दिया है दिमाग जानवर तो नहीं हम, 
हाँ अब भी नहीं सुधरे तो फिर अंधेरी रात है। 
                     दशरथ रांकावत "शक्ति" 

इंसान केवल अच्छे की उम्मीद कर सकता है इस से ज्यादा कभी उसके हाथ में था ही नहीं। 

अब बस उसी की बची हैं आस बाकी,
समस्या ये की उसे ही देखा नही किसी ने कभी। 
                                    दशरथ रांकावत "शक्ति"




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