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परिवर्तन का बीज

 दो दिन पहले करीबन रात के नौ बजे होंगे हमारे पड़ोस के चौधरी साहब जो एक बड़ी मेहंदी फेक्ट्री के मालिक है उनके घर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं ।

थोड़ा कान लगाने पर पता चला बाप बेटे में किसी बात का झगड़ा हो रहा था शायद पिता ने समय पर सो जाने और फोन को इतनी प्राथमिकता देने पर टोक दिया था।

बात तो सही कही थी मगर बेटा चूंकि अब एक बड़ा कारोबारी था तो पिता की इस बात पर कुतर्क करने लगा बात इतनी बढ़ गई कि "आपने क्या किया मेरे लिए" तक बढ़ गई। खैर रात ज्यादा हो रही थी तो मैं भी सो गया।

रात के करीबन 1 बजे मेरी नींद खुली अब तक बहस का अंत नहीं हुआ था शायद , अनायास ही मेरे कवि मन में विचारों का सैलाब उमड़ पड़ा मैंने कागज कलम उठाये और चल पड़ा दृष्टांत को कागज पर उकेरने।

मैं लिखने लगा कि :-


जाहिल, गंवार, पुराने ख्याल वाले जाने क्या क्या,

बाप को सब सुनना पड़ता हैं बेटों की जवानी में।

                                    ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'

     


                              

फिर इसी भाव के साथ सृजन होता गया:-


बेटे क्या सच में तब बड़े हो जाते हैं,

जब वो बाप के कपड़ो में आ जाते है।

जिसे प्यार से बिठाया था कंधे पर कभी,

जब उनके कंधे कंधों तक आ जाते है।

यकीन मानिए लिखते-लिखते भी रोया हूं कई बार,

मां-बाप सब देकर भी क्यू आखिर बोझ हो जाते हैं।

काश झूठ होता मगर सच तो ये भी है,

कई औरंगज़ेब बड़े होकर बाप को खा जाते है।

थोड़े से पैसे कमा कर फूले नहीं समाते,

वहम है कि वो तजुर्बा ज़िन्दगी का पा जाते है।

                                     ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'



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मैं सृजन करता रहा और अपने फोन के स्टेटस लगाता रहा

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कौनसा अहसान कर दिया आपने हर कोई करता है ये तो,

कितनी आसानी से सगे बेटे ने बाप को पराया कर दिया।

                                      ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'



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खून बेचकर भी किया था उसकी हर ख्वाहिश को पूरा,

बस इतना कहते कहते बाप रो पड़ा फफक कर। 

                                    ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'



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जिसकी ख्वाहिशों में तक़सीम हो गया कतरा कतरा, 

        वक्त पडे़ भूल गये बाप को वो प्यारे बेटे।

        घबराये हुये परिंदे की मानिंद था वो शख्स,

        खुशियाँ तो बाँटता रहा मगर गम नहीं बांटे।

        हम किस मुंह से कहेंगे अपनी औलाद को वो सब, 

        जब हमने अपने बाप के दर्द नहीं बाँटे।

        चारो तीरथ तक कराये यहीं का एक श्रवण था, 

        यहीं का कृष्ण था जिसने माँ-बाप के बंधन काटे।

        हमारे बाद की नस्लें भला क्या बाप को बाप बोलेगी,

        बड़ा ही कीमती साया है उनसे मौत भी कांपे।

आपके काम को बेकार,मुश्किल नामुमकिन कहेंगी दुनिया , 

        बाबा का साथ है फूल तो बनेंगे राह के काँटे। 

                                      ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'



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सृजन पूर्ण करते हुए मैंने आंसू पोंछे फिर सो गया इसी उम्मीद के साथ की सच लिखने में जो सुख है वो अमृत में नहीं।

वो भाई साहब संयोग से मेरे सभी फोन स्टेटस देखते थे और अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया भी देते थे। जब मेरी दो लाइन और एक कविता को पढ़ा तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाये और विश्वास कीजिए मेरा उद्देश्य यही था की कोई और देखें न देखें वो जरुर देखे।

शाम को उनसे सामना हुआ मगर उनकी नीची नजर और ग्लानि भरा चेहरा देखकर मैं समझ गया उन्होंने सब पढ़ा है और समझ गए उन्हीं पर लिखा गया है।

 पहली बार 45 साल के व्यक्ति को शर्म से इतना व्यथित देखा । शाम को उनके पिताजी आये और मुझे गले लगाया और धन्यवाद दिया बोले बेटा तुम्हारे शब्दों ने मेरे बुढ़ापे को बरबाद होने से बचा लिया। बेटा मेरे सामने बहुत रोया और मुझसे माफी मांगी।

 मैं पहली बार अपने शब्द सृजक होने पर बहुत गौरवान्वित हुआ। मां सरस्वती से यही प्रार्थना है कि अपना आशीर्वाद इसी प्रकार बनाये रखें और इसी प्रकार परिवर्तन का आधार बनाती रहें।

 ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'

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बहुत धन्यवाद इस प्रोत्साहन के लिए

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