मुझे क्या लेना देना
समाज व्यक्तियों का समूह होता है जहां सभी अपनी सीमाओं में रहते हुए जीवन यापन करते हैं।
परिस्थितियां खराब हो सकती है मगर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना कायरता है।
देखिए ऐसी ही कायरता पर एक कविता
मंज़र है अनचाहे घर को खतरा घर से,
सबके मुंह में खार मुझे क्या लेना देना।
मैं हिंदू तु मुस्लिम हममें अंतर क्या,
सबका है संसार मुझे क्या लेना देना।
युवा सभी डूबे हैं इश्क़ मुहब्बत में,
नस्ल हुई बीमार मुझे क्या लेना देना।
लाश मिली है फिर बापू चौराहे पर,
दोषी है सरकार मुझे क्या लेना देना।
लूटों सारा देश हमारा हक़ है इस पर,
चोर बने भरतार मुझे क्या लेना देना।
जिम्मेदारी थोप रहे एक दूजे पर सब,
सोचें सब मक्कार मुझे क्या लेना देना।
टूट रहे परिवार लड़ रहे भाई भाई,
ख़त्म हो गया प्यार मुझे क्या लेना देना।
नहीं उम्र या पद का कोई मान बचा है,
ज़ख्मी शिष्टाचार मुझे क्या लेना देना।
काम आयेगा मेरे मेरा अपना खेत,
तुम हो जागीरदार मुझे क्या लेना देना।
सारा दरिया पार लगाया हाथों से,
पड़ी रही पतवार मुझे क्या लेना देना।
कलम उठाई एक लाखों दिल छेद दिये,
धरी रही तलवार मुझे क्या लेना देना।
दशा बड़ी दुखदाई कोन संभालें शक्ति,
कब होगा अवतार मुझे है लेना देना।
✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'
Comments
Post a Comment
बहुत धन्यवाद इस प्रोत्साहन के लिए